Thursday 17 November 2016

बच्चा, हमारे सिद्धांत और हमारे अधिकार



हमारे एक पारिवारिक मित्र हमारे घर पर हमसे मिलने आये. बातचीत के दौरान मैंने उनसे उनकी बेटी के बारे में पूछ लिया- ‘जूली तो ११वीं में चली गयी होगी न ?’ ऐसा लगा जैसे कुछ रुका हुआ था और मैंने टोटी हटा दी.
-‘हाँ भाभी. लेकिन पढ़ाई में ठीक नहीं है. पढ़ना ही नहीं चाहती. शुरू-शुरू में अच्छी थी पढ़ाई में लेकिन ८वीं-९वीं  से उसके नंबर कम आने शुरू हुए. उसकी मां ही पढ़ाती है. जब भी उसका प्रोग्रेस रिपोर्ट आता है घर में सरला हंगामा मचा देती है. पहले तो सरला के डांट-फटकार से जूली डर जाती थी. लेकिन अब वो सरला के साथ लड़ जाती है. जब मैंने कहा, बेटी बड़ी हो रही है खुद को चेंज करो थोडा. बात-बात में बच्चों को डांटना ठीक नहीं. इतना सुनते ही उल्टा मुझपर भड़क गयी- सबकुछ अकेले करती हूँ. भाषण मत दो. या तो सबकुछ खुद संभालो नहीं तो बीच में बोलना बंद करो.’ फिर मैं घर से बाहर निकल जाता हूँ. कोशिश करता हूँ जितना कम से कम मुझे घर में रहना पड़े. मेरा काम ऐसा है कि कभी-कभी तो टाइम नहीं होता और कभी-कभी मन नहीं होता घर में कुछ करने का. ऐसा लगता है घर में ऐसा सुकून हो कि बाहर के तनाव कुछ कम हो जाये. छोटी बेटी भी हमेशा डरी-सहमी सी ही रहती है. हाँ, मेरे साथ बच्चे ठीक रहते हैं. क्या करूं कुछ समझ नहीं आता. भाभी, आपने अपने बच्चों को बहुत अच्छे से संभाला है.’
ऐसी बातें कमोवेश कई घरों की कहानी हो सकती हैं. कहीं कुछ कम कहीं कुछ ज्यादा. कुछ अलग-अलग तरह के रिएक्शन्स भी हो सकते हैं. यहाँ इस लाऊडनेस में काफी कुछ अंडरटोन है; जो सुना नहीं जा रहा है. लेकिन यहाँ हम बात सिर्फ बच्चों की करते हैं. जब बच्चे को हम किसी फ्रेम में फिट करके देखने लगते हैं या किसी दुसरे बच्चे से तुलना करने लगते हैं तो मुश्किल और ज्यादा बढ़ जाती है.
हम सब जानते हैं हर बच्चा अलग होता है. किसी भी बच्चे के लिए कोई नियम नहीं हो सकता. ना ही तय किया जा सकता है. ऐसे में बस जरुरत है तो हमें उस बच्चे को समझने की और उसकी एनर्जी को चैनलाइज करने की. और सबसे ज्यादा जरुरी है बच्चे की प्रकृति और प्रवृति को समझ कर बच्चों के साथ खुद को जोड़ने की ना कि उन पर कमांड करने की. पढ़ने-सुनने में लग सकता है कि ये सब सैद्धांतिक बातें हैं, इतना आसन नहीं है. तो सच मानिये ये बहुत मुश्किल भी नहीं है. हाँ, पेशेंस की जरुरत जरूर होगी.
मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ, मैं सिर्फ एक मां हूँ. एक समय था जब मेरा बड़ा बेटा सफ़ेद कागज़ पर काली स्याही से लिखे शब्दों को देख कर डर जाता था. चाहे वो अख़बार ही क्यों ना हो. तब मैंने उसके साथ एक प्रयोग किया था और खुद को उससे जोड़ने की कोशिश की थी. इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपने उसी अनुभव को बांटना चाहती हूँ. मैं नहीं जानती मैं सफल हुई या नहीं या हुई तो कितना हुई. लेकिन इन शब्दों से अलग जब बच्चे कहते हैं, ‘मम्मी, आप कैसे जान लेती हैं कि किसी पर्टिकुलर सिचुएशन में हमारा रिएक्शन क्या होगा, आप हमारे झूठ को पकड़ कैसे लेती हैं’ तो सच कहती हूँ, मैं खुद को सफल मान लेती हूँ. मैं उनसे बस इतना ही बोलती हूँ, ‘मैं तुम्हारी मां हूँ.’
जल्दी ही मिलती हूँ अपने उस प्रयोग के अनुभवों के साथ :-)  ......
चित्र-साभार गूगल

Sunday 13 November 2016

बच्चा, धर्म और भगवान् !

सोचती हूँ लोग मंदिर क्यों जाते हैं ? शांति पाने के लिए या भगवान कहीं रूठ न जाएँ कि मुझे उनकी याद ही नहीं आती या फिर जो नहीं है उसे मांगने के लिए ? ऐसे और भी कई सवाल मन में उठ रह हैं. अगर उन्हें लिखने लगूं तो जो लिखना चाह रही हूँ उससे विषयांतर हो जायेगा. खैर, इन सब विचारों के जड़ में है वो ५-६ साल का बच्चा. अपने माँ-बाप के साथ मंदिर आया था. वो अपनी माँ और पिता की उंगली पकडे अन्दर आया. दोनों उसे लेकर भगवान के सामने खड़े हो सर झुका हाथ जोड़कर प्रार्थना में लगे और वो बच्चा मौका देख चुपके से खिसक लिया. और लगा मंदिर के अन्दर बीच के खाली जगह में दौड़-दौड़ के चक्कर लगाने.
मंदिर में कोई हाथ में छोटी हनुमान चालीसा लिए पाठ कर रहा था. कुछ आपस में बातें कर रहे थे. कोई आँखें बंद कर कुछ बुदबुदाते हुए किसी मन्त्र का जाप कर रहा था. तभी चटाक की आवाज़ ने सबका ध्यान अपनी और खिंच लिया. बच्चा, जो अब तक अपनी दोनों बाहें फैलाये फुर-फुर कर मोटर दौड़ा रहा था, अब अपनी बायीं गाल सहला रहा था और उसकी आँखों में आंसू भर गए. माँ ने घसीट कर उसे भगवान की मूर्ति के आगे खड़ा कर दिया. हाथ जोड़वाया. पुजारी से उसके माथे पर टीका लगवाया. उसके हाथ में प्रसाद दिलवाया. फिर छोड़ दिया. अब बच्चे के एक हाथ में प्रसाद था और दुसरे हाथ में हनुमान चालीसा की छोटी सी किताब. वो बच्चा मंदिर के एक हिस्से में बैठने के लिए जो तख़्त बना था उसपर कोने में जाकर बैठ गया. और अपनी माँ की तरफ एक नज़र देखते हुए अपने हाथ में लिए प्रसाद को कोने में फेंक देता है. उसके आँखों से आंसू अभी भी गिर रहे थे.
अब यहाँ बाल मन के बारे में एक बार सोचते हैं. अगर उसे पता होता कि उसके दुसरे हाथ में लिये हुए किताब का सम्बन्ध भी उसी भगवान से है जिसके कारण उसे मार पड़ी, क्या उसे न फेंक देता ? माँ ने उसका बुरा नहीं चाहा होगा. निश्चित ही उसके सुख की कामना के साथ ही मंदिर गयी होगी. बच्चे को भगवान के प्रति भक्ति-भाव सिखा रही होगी. लेकिन ये कैसी जड़ता है भगवान और धर्म के प्रति कि अगर बच्चा भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर नहीं खड़ा होगा तो उसे भगवान् का आशीर्वाद नहीं मिलेगा. लोग ये क्यों नहीं समझते कि धर्म या ईश्वर और कुछ नहीं जीवन को अनुशासित रखने का तरीका भर है. जिसमें सदाचार, सम्मान, समृद्धि और तमाम दृष्ट-अदृष्ट सुख निहित है.   

मुंबई जैसे महानगरों में ३३० स्क्वायर फीट से १०००-१२०० स्क्वायर फीट के बीच रहने वाले मिडिल क्लास फैमिली के बच्चो को खेलने के लिए जगह की कमी है. बहुत कमी है. स्क्वायर फीट के नंबर कम या ज्यादा हो सकते हैं. लेकिन समस्या कमोवेश एक जैसी ही है. अब एक बार फिर से हम उस बच्चे को उसी फ्रेम में लेते हैं, जहाँ वो फुर-फुर कर बाहें फैलाये दौड़ रहा है. क्या होता अगर माँ ये समझती, उस बड़े से खुले जगह ने उसे भागने के लिए अट्रैक्ट किया है, और उसे वैसे ही छोड़ देती ? क्या होता अगर माँ-बाप स्वयं बैठे होते भगवान् के सामने हाथ जोड़े उसे दौड़ते देख मुस्कुरा भर देते ? शायद थोड़ी देर में अपनी बाल सुलभ भागा-दौड़ी छोड़ उनके पास आ बैठता. शायद उन्हें देख, उनकी तरह वो भी ध्यान लगा कर बैठ जाता अपनी आँखें बंद करके. और शायद उन संस्कारों को वो वैसे ही अपनाने की कोशिश करता जैसा की वो उसे देना चाहते हों.
लेकिन इन महानगरों की यही तो कमी है. यहाँ हर बात की जल्दी होती है. हम ५ साल के बच्चों से १० साल के बच्चों जैसी उम्मीद करते हैं और १० साल के बच्चों से १५ साल के बच्चों जैसी समझदारी की उम्मीद करते हैं. हम उसे उनकी उम्र के साथ बड़े होने ही नहीं देते. जिंदगी की जिस रेलमपेल और धक्कामुक्की में हम हैं बच्चों को भी उसी में धकेलते जाते हैं. जैसे हमने अपनी जिंदगी के लिए जो मानक बना लिया है तो बना लिया है और उसमें अपने बच्चो को भी फिट करके ही मानेंगे.
इससे उत्पन्न फ्रस्टेशन और अंतर्विरोधों को बच्चा व्यक्त कैसे करे ? किससे कहे ?
बहुत जरुरी है कि हम अपने बच्चो का मार्गदर्शन करें. पर उससे ज्यादा जरुरी है स्वयं के अन्दर वो क्षमता लायें जिससे बच्चों की भावनात्मक जरुरत से लेकर उसकी सामाजिक और बौद्धिक जरुरत को समझ सकें. बच्चों में आत्मसम्मान का बोध कहीं से भी बड़ों से कम नहीं होता. तो हमें उसका ध्यान भी रखना ही होगा. 

उन्मुक्त हवा के नादान परिंदे 
बूँद ओस की हैं ये बच्चे,
आओ सीखें बेफिक्री इनसे
सबसे बड़े नेम-धरम ये बच्चे |