हमारे
एक पारिवारिक मित्र हमारे घर पर हमसे मिलने आये. बातचीत के दौरान मैंने उनसे उनकी
बेटी के बारे में पूछ लिया- ‘जूली तो ११वीं में चली गयी होगी न ?’ ऐसा
लगा जैसे कुछ रुका हुआ था और मैंने टोटी हटा दी.
-‘हाँ
भाभी. लेकिन पढ़ाई में ठीक नहीं है. पढ़ना ही नहीं चाहती. शुरू-शुरू में अच्छी थी पढ़ाई
में लेकिन ८वीं-९वीं से उसके नंबर कम आने शुरू
हुए. उसकी मां ही पढ़ाती है. जब भी उसका प्रोग्रेस रिपोर्ट आता है घर में सरला हंगामा
मचा देती है. पहले तो सरला के डांट-फटकार से जूली डर जाती थी. लेकिन अब वो सरला के
साथ लड़ जाती है. जब मैंने कहा, बेटी बड़ी हो रही है खुद को चेंज करो थोडा. बात-बात
में बच्चों को डांटना ठीक नहीं. इतना सुनते ही उल्टा मुझपर भड़क गयी- सबकुछ अकेले
करती हूँ. भाषण मत दो. या तो सबकुछ खुद संभालो नहीं तो बीच में बोलना बंद करो.’ फिर
मैं घर से बाहर निकल जाता हूँ. कोशिश करता हूँ जितना कम से कम मुझे घर में रहना
पड़े. मेरा काम ऐसा है कि कभी-कभी तो टाइम नहीं होता और कभी-कभी मन नहीं होता घर में
कुछ करने का. ऐसा लगता है घर में ऐसा सुकून हो कि बाहर के तनाव कुछ कम हो जाये. छोटी
बेटी भी हमेशा डरी-सहमी सी ही रहती है. हाँ, मेरे साथ बच्चे ठीक रहते हैं. क्या करूं कुछ
समझ नहीं आता. भाभी, आपने अपने बच्चों को बहुत अच्छे से संभाला है.’
ऐसी
बातें कमोवेश कई घरों की कहानी हो सकती हैं. कहीं कुछ कम कहीं कुछ ज्यादा. कुछ अलग-अलग
तरह के रिएक्शन्स भी हो सकते हैं. यहाँ इस लाऊडनेस में काफी कुछ अंडरटोन है; जो
सुना नहीं जा रहा है. लेकिन यहाँ हम बात सिर्फ बच्चों की करते हैं. जब बच्चे को हम
किसी फ्रेम में फिट करके देखने लगते हैं या किसी दुसरे बच्चे से तुलना करने लगते
हैं तो मुश्किल और ज्यादा बढ़ जाती है.
हम
सब जानते हैं हर बच्चा अलग होता है. किसी भी बच्चे के लिए कोई नियम नहीं हो सकता. ना
ही तय किया जा सकता है. ऐसे में बस जरुरत है तो हमें उस बच्चे को समझने की और उसकी
एनर्जी को चैनलाइज करने की. और सबसे ज्यादा जरुरी है बच्चे की प्रकृति और प्रवृति
को समझ कर बच्चों के साथ खुद को जोड़ने की ना कि उन पर कमांड करने की. पढ़ने-सुनने
में लग सकता है कि ये सब सैद्धांतिक बातें हैं, इतना आसन नहीं है. तो सच मानिये ये
बहुत मुश्किल भी नहीं है. हाँ, पेशेंस की जरुरत जरूर होगी.
मैं
कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ, मैं सिर्फ एक मां हूँ. एक समय था जब मेरा बड़ा बेटा सफ़ेद कागज़
पर काली स्याही से लिखे शब्दों को देख कर डर जाता था. चाहे वो अख़बार ही क्यों ना
हो. तब मैंने उसके साथ एक प्रयोग किया था और खुद को उससे जोड़ने की कोशिश की थी. इस
ब्लॉग के माध्यम से मैं अपने उसी अनुभव को बांटना चाहती हूँ. मैं नहीं जानती मैं
सफल हुई या नहीं या हुई तो कितना हुई. लेकिन इन शब्दों से अलग जब बच्चे कहते हैं, ‘मम्मी,
आप कैसे जान लेती हैं कि किसी पर्टिकुलर सिचुएशन में हमारा रिएक्शन क्या होगा, आप
हमारे झूठ को पकड़ कैसे लेती हैं’ तो सच कहती हूँ, मैं खुद को सफल मान लेती हूँ. मैं
उनसे बस इतना ही बोलती हूँ, ‘मैं तुम्हारी मां हूँ.’
जल्दी
ही मिलती हूँ अपने उस प्रयोग के अनुभवों के साथ :-) ......
चित्र-साभार गूगल